जब दरबार-ए-नबवी से मिला सब्र का पैग़ाम:
मदीना मुनव्वरा में एक हाशमी औरत रहा करती थी। कुछ लोग उसे बहुत तकलीफ़ देते थे, बात-बात पर ताना मारते और परेशान करते। एक दिन वह औरत दिल से टूट गई और रोते हुए रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के रौज़े पर हाज़िर हुई।
उसने कहा, या रसूलुल्लाह! ये लोग मुझे बहुत सताते हैं।
तभी रौज़ा-ए-अनवर से एक रूहानी आवाज़ आई:
क्या मेरा उस्वा-ए-हसन तुम्हारे सामने नहीं है? मुझे भी दुश्मनों ने बहुत सताया, लेकिन मैंने सब्र किया। मेरी तरह तुम भी सब्र करो।
सब्र का सिला
वह औरत कहती है, उस आवाज़ से मुझे दिली सुकून मिला।
कुछ ही दिनों में वह लोग जो उसे सताते थे, खुद ही दुनिया से रुख़्सत हो गए। सब्र ने जीत हासिल की।
हमें इस वाक़िये से क्या सीख मिलती है?
इस वाक़िये से हमें यह सिखने को मिलता है कि जब इंसान तकलीफों में भी सब्र करता है और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सीरत को अपनाता है, तो अल्लाह तआला उसे राहत और इंसाफ़ ज़रूर देता है। सब्र करने वाले कभी हारते नहीं।