जब एक बेहया औरत बनी शर्म की मिसाल:
हज़रत अबू उमामा (रज़ि.) से रिवायत है कि एक औरत बड़ी बेहया, बदज़ुबान और बेबाक़ थी। वह बिना लिहाज़ के मर्दों के सामने फुहश बातें करती थी। एक दिन उस औरत का गुजर रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास से हुआ। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम एक ऊँचे चबूतरे पर तसरीर (खजूर) खा रहे थे।
वह औरत बोली:
देखो, ये कैसे बैठा है जैसे कोई गुलाम बैठता है, और खा भी ऐसे रहा है जैसे गुलाम खाते हैं।
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने बहुत शांति से जवाब दिया:
इस पूरी दुनिया में मुझसे बढ़कर बंदगी करने वाला कौन हो सकता है?
औरत फिर बोली:
खुद तो खा रहा है, हमें नहीं दे रहा।
आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:
तो लो, तुम भी खा लो।
और आपने उसे कुछ तसरीर दे दी।
फिर उस औरत ने कहा:
अपने हाथ से दीजिए।
तो आपने सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अपने हाथ से उसे खजूरें दीं।
इसके बाद भी उस औरत ने कहा:
मुझे वही दीजिए जो आपने खुद खाई है, यानी अपने मुँह की खजूर।
तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने बिना गुस्सा किए उसे वही खजूर दी, और उसने उसे खा लिया। बस, उसी पल उसके दिल में ऐसी शर्म और हया पैदा हुई कि मरते दम तक कभी किसी से बेहयाई की बात नहीं की।
हमें इस वाक़िए से क्या सीख मिलती है?
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इंसान को बदलने के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है इख़लास और हुस्न-ए-अख़लाक़।
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नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का अंदाज़-ए-इंसानियत किसी को भी बदल सकता है।
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गुनाहगार को हिकमत और सलीके से नसीहत देना सबसे असरदार तरीका है।