इलाज नहीं – दीदार चाहिए था इस दिल-ए-बीमार को:
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सबसे अज़ीज़ और सच्चे आशिक़ हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की मोहब्बत का आलम यह था कि जब नबी-ए-पाक सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इस दुनिया से पर्दा फरमा गए, तो हज़रत अबू बकर ग़म-ए-फिराक में बेचैन रहने लगे। वह हर पल याद-ए-रसूल में आंसू बहाते और दिल में तड़प लिए जीते।
थोड़े ही समय के अंदर उनकी हालत इतनी बिगड़ गई कि वह बीमार पड़ गए। सहाबा-ए-किराम ने इलाज के लिए मशहूर हकीम (डॉक्टर) को बुलाया। उसने धैर्य से नब्ज देखी, चेहरे के रंग को परखा और फिर गहरी सांस लेते हुए बोला:
यह मरीज किसी गहरी मोहब्बत में गिरफ़्तार है और उनका महबूब उनसे जुदा हो चुका है। यही इश्क़ और फि़राक़ उनके बीमार होने की असली वजह है। इनका इलाज सिर्फ एक है – जिससे ये मोहब्बत करते हैं उसको दिखा दिया जाए। इसी से इनकी बीमारी दूर होगी।
हकीम की यह बात सुनकर सबको यक़ीन आ गया कि हज़रत अबू बकर की बीमारी कोई शारीरिक नहीं, बल्कि इश्क़-ए-रसूल की शिद्दत का असर है। उनके दिल में सिर्फ एक ही आरज़ू रह गई थी – फिर से अपने प्यारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ज़ियारत हो जाए। लेकिन जिस महबूब ने पर्दा फरमा लिया हो, उसका दीदार अब इस दुनिया में कैसे मुमकिन हो!
इस दर्द-ए-जुदाई ने हज़रत अबू बकर के जिस्म को कमजोर कर दिया, मगर उनकी रूह मोहब्बत से और ज़्यादा ताज़ा होने लगी। आख़िरकार यही इंतज़ार, यही तड़प और यही इश्क़ उन्हें फिर उस महबूब के दरबार तक ले गई जिसके लिए जीते थे और मरते थे।
हमें इस वाक़िए से क्या सीख मिलती है?
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सच्चा इश्क़ दिल और जान को बदल देता है।
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इश्क-ए-रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम में दुख और बीमारी भी नेमत बन जाती है।
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अल्लाह अपने दोस्तों के दिलों में नबी की मोहब्बत को शिफ़ा भी बनाता है और दर्द भी।