सख़ावत, ईमान और नूर की हकीकत

सख़ावत और ईमान का नूर ही इंसान को जन्नत की राह दिखाता है:

इस्लामी तालीमात इंसान को हमेशा नेक रास्तों की ओर ले जाती हैं। इस वाक़िए में हमें यह समझाया गया है कि काम को टालना, दुनियावी लज़्ज़तों में गुम हो जाना और ग़फ़लत की ज़िंदगी जीना इंसान को रूहानी कामयाबी से दूर कर देता है।

आज का काम कल पर मत डालो

हमें हमेशा यह याद रखना चाहिए कि नेक काम को कल पर टालना ग़लत है। अगर कोई कहे कि मैं कल से शुरू करूँगा तो यह दरअसल धोखे के बराबर है। नेक काम और इबादत आज से ही शुरू करनी चाहिए।

हदीस में आता है कि सख़ावत जन्नत का एक दरख़्त है। जो शख़्स सख़ी होता है, वह उस दरख़्त की एक शाख़ को थाम लेता है और वह शाख़ उसे छोड़ती नहीं, जब तक उसे जन्नत में दाख़िल न करा दे।

सख़ावत की असली पहचान

सख़ावत सिर्फ़ माल देने का नाम नहीं है, बल्कि अपने जिस्म को भी बुरी ख़्वाहिशों और गुनाहों से दूर रखना सख़ावत है। अपने जिस्म को इबादत और अल्लाह की याद में लगाना ही असल सख़ावत है।

जहाँ और इंसान की मिसाल

इंसान को यूसुफ़ (अलैहिस्सलाम) की तरह समझाया गया है और यह दुनिया कुआँ है। इस कुएँ से निकलने का रास्ता सब्र और इस्तिग़फ़ार है।

अलम-ए-ग़ैब और अलम-ए-शहादत

इंसान अपनी आँखों से सिर्फ़ ज़ाहिरी चीज़ें देखता है। लेकिन हक़ीक़त यह है कि हर अमल की अस्ल वजह ग़ैब से ताल्लुक़ रखती है। जैसे बवंडर (टॉर्नेडो) में धूल उड़ती हुई दिखती है लेकिन असल में उसे हवा चलाती है, जो नज़र नहीं आती।

नूर-ए-बसीरत और नूर-ए-बसारत

सिर्फ़ आँखों की रोशनी (नूर-ए-बसारत) इंसान को हक़ तक नहीं पहुँचा सकती। इसके लिए दिल की रोशनी यानी ईमान और नूर-ए-बसीरत चाहिए।

कुरआन में आया है: नूर अला नूर (रोशनी पर रोशनी)।

ग़ज़वा-ए-बद्र का वाक़िया

हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ग़ज़वा-ए-बद्र में दुश्मनों की तरफ़ मुट्ठी भर मिट्टी फेंकी, जो आँधी की तरह उनकी आँखों में चली गई। इससे हमें यह सबक मिलता है कि हर काम का असर असल में अल्लाह की क़ुदरत से होता है।

क़ज़ा और क़दर पर रज़ामंदी

इंसान को हमेशा अल्लाह की तक़दीर पर राज़ी रहना चाहिए। अगर कोई तीर लग भी जाए, तो समझो कि यह अल्लाह की तरफ़ से है। ग़ुस्सा करना दरअसल ग़लत सोचना है।

सालिक का सफ़र और मक़ाम-ए-फ़ना

हर सालिक (सच्चा तालिबे-इल्म और रूहानी मुसाफ़िर) को बहुत से मरातिब तय करने पड़ते हैं। रास्ते में कई खतरे होते हैं, लेकिन सब्र और इबादत से वह मक़ाम-ए-अमन तक पहुँच जाता है।

जब इंसान मक़ाम-ए-फ़ना तक पहुँच जाता है, तो वह अल्लाह की रज़ा में पूरी तरह फना हो जाता है। जैसे लोहा आग में जलकर आग जैसी सिफ़ात अपना लेता है।

मंसूर हल्लाज का वाक़िया

मंसूर हल्लाज रहमतुल्लाह अलैह ने जब अना-ल-हक़ कहा, तो उसका मतलब यह था कि वह पूरी तरह फ़ना होकर अल्लाह की सिफ़ात में रंग गए थे। जैसे जलता हुआ लोहा यह कहे कि मैं आग हूँ

शैख़ और मुरशिद की अहमियत

इंसान की रूहानी तरक़्क़ी में शैख़-ए-कामिल की बहुत अहमियत है। शैख़ की निगाह से मुरिद के दिल में इल्म और हिकमत के चश्मे फूटते हैं। अगर शैख़ की तवज्जो हट जाए, तो मुरिद गुमराही में जा सकता है।

कोह-ए-तूर की मिसाल

कोह-ए-तूर (सिनाई पर्वत) ने जब अल्लाह की तजली को स्वीकार किया तो हिल गया। इंसान का दिल भी ऐसा ही होना चाहिए जो अल्लाह की रहमत और नूर को क़ुबूल करे।

नतीजा और सीख

  1. नेक काम को कभी टालना नहीं चाहिए।

  2. असल सख़ावत अपने जिस्म और दिल को अल्लाह की इबादत में लगाना है।

  3. दुनिया का असली नज़्म ग़ैब के हाथ में है।

  4. नूर-ए-बसीरत के बिना इंसान हक़ तक नहीं पहुँच सकता।

  5. सालिक को सब्र और इबादत से मक़ाम-ए-फ़ना तक पहुँचना होता है।

  6. शैख़ की निगाह और रहनुमाई इंसान के दिल को रौशन करती है।

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