इस्लाम ने ग़ुलाम को मुअज़्ज़िन बना दिया:
हज़रत बिलाल (रज़ि.) मूल रूप से इथोपिया (हब्शा) के एक ग़ुलाम थे। उन्होंने जब इस्लाम कुबूल कर लिया तो उनके मालिक उमैया बिन ख़लफ़, जो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का घोर दुश्मन था, उनको बेहद दर्दनाक सज़ाएं देने लगा। कभी तपती रेत पर लिटाता, कभी सीने पर पत्थर रखता और कहता – मुहम्मद का नाम छोड़ दो! मगर हज़रत बिलाल हर चोट, हर तकलीफ़ में सिर्फ एक ही जवाब देते – अहद…अहद (अल्लाह एक है, एक है)।
उनकी इस अटूट इमानदारी और सब्र की खबर जब हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ (रज़ि.) को हुई, तो उनका दिल तड़प उठा। उन्होंने तुरंत उमैया से बात की और बहुत भारी कीमत पर सोना देकर हज़रत बिलाल को खरीद लिया और आज़ाद कर दिया।
हज़रत अबू बकर का यह इख़लास और कुर्बानी अल्लाह को इतना पसंद आया कि इस वाक़िए के बारे में क़ुरआन में आयत नाज़िल हुई:
वह (अबू बकर) सिर्फ अल्लाह की रज़ा के लिए माल खर्च करता है और बहुत जल्द अल्लाह उससे राज़ी होगा।
(क़ुरआन – सूरह अल-लैल)
इस तरह एक ग़ुलाम जो सिर्फ अल्लाह की ख़ातिर हर जुल्म सह रहा था, इस्लाम के पैगाम और साथी की मदद से न सिर्फ आज़ाद हुआ बल्कि आगे चलकर इस उम्मत के पहले मुअज़्ज़िन यानी अज़ान देने वाले बने।
हमें इस वाक़िए से क्या सीख मिलती है?
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इस्लाम में अमीरी-गरीबी, रंग-नस्ल की कोई अहमियत नहीं – सब अल्लाह की राह में बराबर हैं।
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जो अल्लाह की रज़ा के लिए खर्च करता है, अल्लाह खुद उससे राज़ी होता है।
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इमान की सच्चाई में तकलीफ़ें आती हैं, लेकिन सब्र से कामयाबी मिलती है।