हुकूमत नहीं, जिम्मेदारी का नाम है खिलाफ़त:
जब रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पर्दा फ़रमाने के बाद मुसलमानों ने आपसी मशवरे से हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ (रज़ि.) को इस्लाम की पहली खिलाफ़त की जिम्मेदारी सौंपी, तो उन्होंने एक बड़े मजमे (सामूहिक सभा) में खड़े होकर एक ऐतिहासिक भाषण दिया।
उन्होंने फ़रमाया —
मेरे भाइयों और साथियों! तुम लोगों ने मुझे खलीफ़ा चुना है, वरना मैं तुम सबसे बेहतर नहीं हूँ। लेकिन जब मुझे नेतृत्व दिया गया है, तो याद रखो कि यह बादशाहत या शान-ओ-शौकत का ओहदा नहीं, बल्कि भारी ज़िम्मेदारी है।
तुम में जो ताकतवर है, वह मेरे नज़दीक तब तक कमजोर है जब तक मैं उससे कमजोर इंसान का हक न दिलवा दूँ। और जो तुम में कमजोर है, वह मेरे नज़दीक ताकतवर है, जब तक कि मैं उसकी मदद कर उसके हक को हासिल न करवा दूँ।
उन्होंने आगे कहा —
कभी भी जिहाद छोड़ कर सुस्ती न बरतो। जिस कौम ने जिहाद छोड़ दिया, वह दुनिया में ज़िल्लत और रूसवाई का शिकार हुई। और याद रखो — सच्चाई और सीधा रास्ता अमानत है, जबकि झूठ और टेढ़ापन ख्यानत है।
उन्होंने साफ कह दिया —
जब तक मैं अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का फरमांबरदार हूँ, तब तक मुझ पर तुम्हारी आज्ञापालन वाजिब है। लेकिन जिस दिन तुम मुझे इस रास्ते से हटता देखो, तो डरने की ज़रूरत नहीं — मेरी इताअत छोड़ दो और मुझे सीधा कर दो।
हमें इस वाक़िए से क्या सीख मिलती है?
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इस्लाम में लीडरशिप घमंड नहीं बल्कि जिम्मेदारी और जवाबदेही का नाम है।
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ताकतवर वही है जो कमज़ोर का हक दिलवाए।
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हुकम्मत की इताअत तभी तक है जब तक वो अल्लाह और उसके रसूल के रास्ते पर हो।
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जिहाद और सच्चाई इस्लामी समाज की बुनियादें हैं, जिन्हें कभी छोड़ा नहीं जा सकता।