जब अबू बकर (रज़ि.) हुजरा-ए-नबवी में दफ़्न हुए

जब हज़रत अबू बकर (रज़ि.) को मिली आख़िरी मंज़िल – सरवर-ए-दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास:

हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) इस उम्मत के पहले ख़लीफ़ा थे और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सबसे अज़ीज़ साथी। अपने आख़िरी समय में उन्होंने हज़रत अली (रज़ि.) से वसीयत फ़रमाई कि जब उनका विसाल हो जाए तो उनके जनाज़े को तैयार करके हुजरा-ए-नबवी शरीफ़ – यानी वह कमरा जहां रसूलुल्लासल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का पवित्र मज़ार मुबारक है – के दरवाज़े पर रखा जाए और अर्ज़ किया जाए:

अस्सलामु अलैक़ुम या रसूल अल्लाह! यह अबू बकर दरवाज़े पर हाज़िर है…

और फिर जैसा भी हुक्म आए, उसी के अनुसार अमल किया जाए।

वसीयत के मुताबिक़ जब उनका विसाल हुआ, तो जनाज़ा मुबारक को मस्जिद-ए-नबवी के हुजरा-शरीफ़ के बाहर रखा गया और अदब के साथ आवाज़ दी गई –
या रसूल अल्लाह! यह आपके साथी और यार-ए-ग़ार अबू बकर (रज़ि.) हाज़िर हैं, और इच्छा रखते हैं कि आपको के पास दफ़्न किए जाएं – अगर इजाज़त हो तो…

यह कहना था कि जो दरवाज़ा बंद था वह खुद-ब-खुद खुल गया और अंदर से एक आवाज़ सुनाई दी:

हबीब को हबीब से मिला दो, क्योंकि हबीब को हबीब से मिलने की शिद्दत की चाह है।

यह रूहानी इजाज़त मिलते ही सहाबा-ए-किराम ने हज़रत अबू बकर (रज़ि.) के जनाज़े को अंदर ले जाकर रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मुबारक कन्धों के पास सुपुर्द-ए-ख़ाक किया। इस तरह अल्लाह के सबसे अज़ीज़ दो बंदे फिर से एक स्थान पर इकट्ठा हो गए।

इस वाक़िए से हमें क्या सीख मिलती है?

  • अल्लाह तआला अपने नेक वलीयों की दुआ और चाहत को कुबूल करता है।

  • रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ मोहब्बत रखी जाए तो अल्लाह उस मोहब्बत की लाज रखता है।

  • सच्चे साथी मौत के बाद भी एक दूसरे के करीब रहने की तमन्ना रखते हैं।

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